काग़ज़ पे रोज़ खींचे जो नफ़रत के हाशिये |
एसे क़लम को तोड़ के कूड़े में डालिए ||
जब-जब भी उसने राह में कांटे बिछा दिए |
हमने बग़ल से दूसरे रस्ते बना लिए ||
जब ख़ाक छानने से तुम्हे कुछ नहीं मिला |
जो जानना है पास आके हम से जानिये ||
आराम तलबी में गए हैं डूब हम सभी |
ख़ुद हमने अपनी मौत के सामाँ जुटा लिए ||
अच्छे -बुरे हैं लोग सभी इस ज़मीन पर |
सबको न आप एक ही लाठी से हांकिये ||
उंगली पकड़ के रोज़ यूं कब तक चलेंगे आप |
ख़ुद पे भरोसा कर के डगर ख़ुद निकालिए ||
बांटो ज़मीन घर ओ सभी जायदाद को |
पर जो दिलों में प्यार है उसको न बांटिये ||
भड़का रहे मुझे मेरे भाई के ही ख़िलाफ़ |
अब आप अपने घर का ज़रा रस्ता नापिये ||
मक़बूलियत बटोर के ‘सैनी’को क्या मिला |
चारो तरफ़ से सैंकड़ों दुश्मन बना लिए ||
डा० सुरेन्द्र सैनी