Thursday, 28 June 2012

नफ़रत के हाशिये


काग़ज़ पे रोज़ खींचे जो नफ़रत के हाशिये |
एसे  क़लम  को  तोड़  के  कूड़े  में  डालिए ||

जब-जब भी उसने राह में  कांटे बिछा दिए |
हमने   बग़ल   से  दूसरे  रस्ते   बना  लिए ||

जब ख़ाक छानने से तुम्हे कुछ नहीं मिला |
जो जानना है पास आके  हम  से  जानिये ||

आराम  तलबी   में   गए  हैं  डूब   हम सभी |
ख़ुद हमने अपनी मौत के  सामाँ जुटा लिए ||

अच्छे -बुरे  हैं  लोग   सभी   इस ज़मीन पर  |
सबको  न  आप  एक  ही  लाठी  से  हांकिये ||

उंगली पकड़ के रोज़ यूं कब तक चलेंगे आप |
ख़ुद  पे  भरोसा कर के डगर ख़ुद  निकालिए ||

बांटो  ज़मीन   घर  ओ   सभी  जायदाद  को |
पर जो दिलों में  प्यार है  उसको  न  बांटिये ||

भड़का  रहे  मुझे  मेरे  भाई  के  ही  ख़िलाफ़ |
अब आप अपने घर का ज़रा  रस्ता नापिये ||

मक़बूलियत बटोर के ‘सैनी’को क्या मिला |
चारो  तरफ़ से सैंकड़ों   दुश्मन  बना  लिए ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Tuesday, 26 June 2012

कुछ नहीं है


मिरे दर्द-ए-दिल की दवा कुछ नहीं है |
दुआओं में भी अब रहा कुछ  नहीं  है ||
 
ख़ुदा  ही   बचाएगा   तूफाँ  से  कश्ती |
ख़ला कुछ नहीं नाख़ुदा कुछ  नहीं  है ||
 
समझ मैं गया हूँ  तिरे प्यार  को  अब |
“फ़रेब-ए-नज़र के सिवा कुछ नहीं है ”||
 
तजरबा ये कहता  है  इस  ज़िंदगी  में |
ख़ुशी का मज़ा ग़म बिना कुछ नहीं है ||
 
हुए आज  तक  जो वो  उनसे  मक़ाले |
रहे   बेनतीजा    हुआ    कुछ  नहीं  है ||
 
मिटा  डाला  मैंने   सभी  हसरतों  को |
दिल-ए-नातवाँ  पर बचा कुछ नहीं है ||
 
चले   जा    रहे   हैं  सभी  आँख  मूंदे |
कहाँ  जायेंगे  ये  पता  कुछ  नहीं  है ||
 
सुना है मुहब्बत वो  करते  हैं  मुझसे |
मगर मुझसे एसा कहा कुछ  नहीं  है ||
 
सजा ली है मैंने ये महफ़िल अदब की |
बिना  ‘सैनी ’तेरे  मज़ा  कुछ  नहीं  है || 
 
डा० सुरेन्द्र  सैनी  

Monday, 25 June 2012

चाहत कुछ नहीं


आप सा  है  हमनवा  बस  और चाहत  कुछ नहीं  |
है मुकम्मल क़ाफ़िला बस और चाहत कुछ  नहीं ||  

जब भी जी चाहा वहाँ जाकर गला तर  कर  लिया |
पास  में  हो  मैकदा  बस  और  चाहत  कुछ  नहीं || 

दे  रहा   जो   दूसरों  को  लौट  कर  मिलना   वही |
कर सकूँ सब का भला बस और चाहत कुछ नहीं || 

आग  , पानी   और   हवा   ये   हैं ख़ुदा  की नेमतें |
ये  मुझे  भी  हों  अता बस और चाहत कुछ नहीं || 

कह  रहा  हूँ जो फ़क़त सुन  लीजिएगा   ग़ौर   से |
आपने जब सुन लिया बस और चाहत कुछ नहीं || 

खींच   ली  दीवार  जब  हमने  हमारे  दरमियान |
हो गया है फैसला  बस  और  चाहत   कुछ  नहीं || 

आज फ़ाक़ामस्त ‘सैनी ‘ को ज़रुरत है  ही क्या |
दाल रोटी के  सिवा बस  और चाहत कुछ  नहीं || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Sunday, 24 June 2012

भरोसा न होता


ख़ुदा पर अगर कुछ भरोसा न होता |
सफ़ीना  भंवर  में  उतारा  न  होता ||

अगर कुछ तुम्हारा इशारा न  होता |
मिरा आशिक़ी का  इरादा  न  होता ||

तिरी बेवफ़ाई से  सीखा  बहुत  कुछ |
वगरना  हमें  ये  तजरबा   न  होता ||

अगर  हमसफ़र   तुम   होते  न  मेरे |
सफ़र ये कभी अपना  पूरा  न  होता ||

नसीबों में अपने क्या आज़ादी होती |
शहीदों  ने सर गर कटाया  न  होता ||

लबों   ने   तुम्हारे   इसे  दी  रवानी |
यूं  मशहूर  मेरा  तराना   न  होता ||

कोई  बात  ‘सैनी ’की भी मान लेते |
कभी आप लोगों में झगडा न होता ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी     

Friday, 22 June 2012

खाबों में खोने दो


अभी तो  रात  बाक़ी  है  ज़रा  सा  और  सोने  दो |
किसी के ख़ाब आने हैं  मुझे  खाबों  में  खोने  दो ||

ज़बरदस्ती किसी को तुम हँसाओगे  भला  कैसे |
लिखा तक़दीर में उसकी अगर रोना तो रोने  दो ||

बना रक्खा है मैंने  पैर  के  तलुओं   को  फ़ौलादी |
बला   से  राह  में  कांटें   कोई  बोता  है  बोने  दो ||

गुनाहगारों से भर के कश्ती  दरिया  में  उतारी  है |
डुबाता है अगर  माझी  तो  कश्ती  को  डुबोने  दो ||

मेरी आग़ोश में सर रख के वो ग़म हल्का करते हैं |
उन्हें  आंसू  बहा  कर मेरे दामन  को  भिगोने  दो ||

जिसे  ग़म से मुहब्बत है जिसे ग़म  रास  आते हैं |
अकेले  ही   उसे  उसके  ग़मों   का  बोझ  ढ़ोने दो ||

खड़ा चुपचाप  ‘सैनी ’तो  तमाशा   देखता   रहता |
ग़ज़ल कहनी कहे जाओ जो होता है सो  होने  दो ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
  

Tuesday, 19 June 2012

कह दिया उनको


हमारे दिल में जो भी था वो सब कुछ कह दिया उनको |
ख़ुदा  ही  जानता  है  अब  तो   ये  कैसा  लगा  उनको ||

मुझे    अर्सा    हुए    बीमारियों    ने     बाँध   रक्खा  है |
अभी तक भी नहीं क्यों कर चला आख़िर पता  उनको ||

जिन्हें  ज़र  के  समुन्दर  में  नहाने  की  पडी  आदत |
ख़याल  आयेगा  क्यों  मेरी  ग़रीबी  का  भला  उनको ||

बड़ा  मुंहफट  हूँ  मेरी  इस  कमी  को  जानते  हैं सब |
कहा   होगा   ज़रूर   एसा   लगा  है  जो  बुरा  उनको ||

समझते हैं मुझे वो क्या  ये  उनकी  सोच  है अपनी |
मगर मैंने तो  समझा है  फ़क़त इन्सां भला उनको ||

कभी   गुस्से   में   उनके   देखना  तेवर  अरे  तौबा |
नहीं  ख़तरे  से  है  ख़ाली   ज़रा  भी  छेड़ना  उनको ||

कराते    हैं   बड़ा  ख़र्चा तरस  खाते  नहीं  बिल्कुल |
बदलते इस ज़माने की  लगी  है  अब  हवा  उनको ||

पसीजा  दिल कभी  उनका  नहीं  मेरी  तबाही  पर |
कईं  लोगों का कहना है सुकून इससे मिला उनको ||

बिठा कर अपनी पलकों पर हमेशा ही उन्हें रक्खा |
समझता  ही  रहा  ‘सैनी ’हमेशा  हमनवा  उनको ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
  
  

बेबसी रह गयी


आँख में कुछ नमी  रह  गयी |
टीस दिल  में  बची  रह गयी ||

दर्द     औलाद     देने     लगी |
परवरिश में  कमी  रह  गयी ||

सोचने   के   लिए   उम्र   भर |
अब   मेरी   बेबसी  रह  गयी ||

और  तो  कुछ  नहीं  मेरे पास |
याद   बस  आपकी  रह  गयी ||

इश्क़   तो   अब  तमाशा  बना |
नाम   की  आशिक़ी  रह  गयी ||

बात    करते    रहे    वो   बहुत |
बात  पर   काम  की  रह  गयी ||

मुझको  करके  फ़ना चल  दिए |
अब कमी  कौन  सी  रह  गयी ||

जो  तरक्क़ी की दरख़्वास्त दी |
फाइलों    में    दबी   रह  गयी ||

सुन के ‘सैनी ’की रूदाद-ए-ग़म |
साँस  सबकी   थमी   रह  गयी ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी  

Sunday, 17 June 2012

प्यार करते हो


हमीं  से  प्यार  करते  हो  हमीं  से  घात   करते  हो |
वफ़ादारी की आख़िर  कौन  सी  ये  बात  करते  हो ||

झगड़ना  ,रोना  उसके  बाद  ये  घंटों  का  पछताना |
भला   पैदा   ही  एसे  आप  क्यों  हालात  करते  हो ||

शरारत   बातों -बातों  में  बताओ   तो  ज़रा  मुझको |
मेरे   ही  साथ  करते  हो  या  सबके  साथ करते  हो ||

कभी   पूरी   हुई    है   आपसे   बच्चों   की  फ़र्माइश |
यों करने को तो मेहनत आप भी दिन -रात करते हो ||

शिकायत   है   अगर  कोई   सलीक़े   से   करो  भाई |
किसी के  क्यों  अबस घायल अरे जज़्बात करते हो ||

सियासत  कोठरी  काजल की है बच  के ज़रा रहना |
इसे अब छोड़ना  अच्छा  क्यों  काले हाथ करते  हो ||

शराफ़त  की  हसीनों   से   किये    उम्मीद  बैठे  हो |
मियाँ ‘सैनी ’भला तुम भी कहाँ  की बात  करते हो ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी