ख़ाब में भेजे किसी ने टोकरी भर के गुलाब |
देख कर मेरी तबीयत हो गयी है लाजवाब ||
जब तलक उनके तसव्वुर में न बैठूँ दो घड़ी |
जाने क्यों लगने लगे है हर तसव्वुर ही अज़ाब ||
देखते ही देखते मदहोश हो जाता हूँ मैं |
है भरी नैनों में तेरे किस जहाँ की ये शराब ||
हाथ रचवा कर हिना से जब दिखाए थे मुझे |
मुझको दिन में तब नज़र आये थे दो -दो आफ़ताब ||
देख नाख़ूनों की रंगत छुप गया झट से हिलाल |
ज़ुल्फ़ सरकाने लगे माथे से जब अपने जनाब ||
आशिक़ों में दीद की दीवानगी को देख कर |
हट गयी चेहरे से ख़ुद ही शर्म के मारे निक़ाब ||
आदतन हालाकि मै को वो कभी छूता नहीं |
पर तेरी आँखों से पी जाता है ‘सैनी ’ बेहिसाब ||
डा० सुरेन्द्र सैनी