कम हैं साधन मुसीबत बड़ी |
आम लोगों की ये त्रासदी ||
घर मिले ही नहीं आज तक |
कितनी पब्लिक सड़क पर पडी ||
साल भर होती हैं बैठकें |
बात होती नहीं काम की ||
रोशनी खा गए सब अमीर |
दी हमें तीरगी - तीरगी ||
वो तो समझो गया जान से |
जिसने सच्ची ज़बां खोल दी ||
आज अहले - सियासत कहाँ |
एक घर में सिमट सी गयी ||
घर से जाते हुए बेटी आज |
अश्क कितने मुझे दे चली ||
साफ़ सुथरा था अब तक अदब |
आ गयी इसमें सौदागिरी ||
हाल सब का ही बेहाल है |
एक ‘सैनी’ नहीं तू दुखी ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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