Monday, 23 July 2012

गुलाब


ख़ाब  में  भेजे  किसी  ने  टोकरी  भर  के  गुलाब |
देख   कर   मेरी  तबीयत  हो  गयी  है  लाजवाब ||

जब  तलक  उनके  तसव्वुर  में  न  बैठूँ  दो  घड़ी |
जाने  क्यों  लगने लगे  है हर तसव्वुर ही अज़ाब ||

देखते    ही    देखते    मदहोश    हो   जाता   हूँ   मैं |
है   भरी   नैनों   में  तेरे  किस  जहाँ  की  ये शराब ||

हाथ  रचवा  कर  हिना   से  जब   दिखाए   थे  मुझे |
मुझको दिन में तब नज़र आये थे दो -दो आफ़ताब ||

देख  नाख़ूनों   की  रंगत  छुप  गया झट से हिलाल |
ज़ुल्फ़  सरकाने  लगे  माथे  से  जब  अपने जनाब ||

आशिक़ों    में   दीद   की   दीवानगी  को  देख  कर |
हट  गयी  चेहरे  से  ख़ुद  ही  शर्म  के  मारे निक़ाब ||

आदतन   हालाकि   मै   को   वो   कभी  छूता  नहीं |
पर  तेरी  आँखों  से  पी  जाता   है  ‘सैनी ’ बेहिसाब ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

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