बेबसी में फंसी ज़िंदगी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े |
अपनी क़िस्मत में लाचारगी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||
क़त्ल -ओ -ग़ारत ये कैसी मची चार सू भाई ने भाई पर तेग़ तानी हुई |
लाश अपने सगो की बिछी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||
इक इशारे पे तैयार रहता था वो जान तक अपनी देने को मुझको सदा |
आज उस यार की बेरुख़ी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||
जूझता ज़िंदगी से रहा मैं सदा बीबी - बच्चों को सपने दिखाता रहा |
आज पोशाक सब की फटी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||
छटपटाता रहा मैं भी कुछ कर सकूं पर किसी ने ये मौक़ा दिया ही नहीं |
रहनुमाओं की ये संगदिली देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||
कल के बारे में सोचा नहीं आज तक जो मिला खा लिया खा के मैं सो गया |
अपने घर में बहुत सी कमी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||
सोचता था वतन इनके शानो पे हो इल्म -ओ -फ़न से नवाज़ू मैं एसा इन्हें |
एसे बच्चों की आवारगी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||
आज हैरत में हूँ मैं यही सोच कर कैसे रस्ते से भटके हैं ये नौनिहाल |
इनमें बढ़ती हुई मैकशी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||
तू अंधेरों में पलता रहा आज तक दूसरों के दिए पर जलाता रहा |
‘सैनी’ तेरी ये दरियादिली देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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