Thursday, 5 July 2012

आंसू बहुत कम पड़े


बेबसी  में  फंसी  ज़िंदगी  देख  कर  मैं  जो  रोया  तो आंसू बहुत कम पड़े |  
अपनी क़िस्मत में लाचारगी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||    

क़त्ल -ओ -ग़ारत ये  कैसी  मची चार सू  भाई ने भाई  पर तेग़  तानी हुई |
लाश अपने सगो की बिछी देख कर मैं जो रोया  तो आंसू बहुत कम  पड़े ||    

इक इशारे पे तैयार रहता था वो जान तक अपनी देने को मुझको   सदा |
आज उस यार की बेरुख़ी देख कर मैं जो रोया तो आंसू  बहुत  कम  पड़े ||     

जूझता  ज़िंदगी से रहा  मैं सदा  बीबी - बच्चों    को  सपने  दिखाता  रहा |
आज पोशाक सब की फटी  देख कर मैं जो  रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||    

छटपटाता रहा मैं भी कुछ कर  सकूं  पर किसी  ने ये  मौक़ा दिया ही नहीं |
रहनुमाओं की ये संगदिली देख   कर मैं  जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||     

कल के बारे में सोचा नहीं आज तक जो मिला खा लिया खा के मैं सो गया |
अपने घर में बहुत सी कमी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत  कम  पड़े ||    

सोचता था वतन इनके शानो पे हो इल्म -ओ -फ़न से नवाज़ू मैं एसा इन्हें |
एसे बच्चों की आवारगी देख कर मैं  जो  रोया  तो  आंसू  बहुत  कम  पड़े ||    

आज हैरत में हूँ मैं यही सोच कर कैसे  रस्ते   से  भटके  हैं  ये  नौनिहाल |
इनमें बढ़ती हुई मैकशी देख कर मैं जो  रोया  तो  आंसू  बहुत  कम  पड़े ||    

तू   अंधेरों    में   पलता  रहा   आज  तक दूसरों  के दिए पर जलाता रहा |
‘सैनी’ तेरी  ये दरियादिली  देख  कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||    

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

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