Monday, 23 July 2012

गुलाब


ख़ाब  में  भेजे  किसी  ने  टोकरी  भर  के  गुलाब |
देख   कर   मेरी  तबीयत  हो  गयी  है  लाजवाब ||

जब  तलक  उनके  तसव्वुर  में  न  बैठूँ  दो  घड़ी |
जाने  क्यों  लगने लगे  है हर तसव्वुर ही अज़ाब ||

देखते    ही    देखते    मदहोश    हो   जाता   हूँ   मैं |
है   भरी   नैनों   में  तेरे  किस  जहाँ  की  ये शराब ||

हाथ  रचवा  कर  हिना   से  जब   दिखाए   थे  मुझे |
मुझको दिन में तब नज़र आये थे दो -दो आफ़ताब ||

देख  नाख़ूनों   की  रंगत  छुप  गया झट से हिलाल |
ज़ुल्फ़  सरकाने  लगे  माथे  से  जब  अपने जनाब ||

आशिक़ों    में   दीद   की   दीवानगी  को  देख  कर |
हट  गयी  चेहरे  से  ख़ुद  ही  शर्म  के  मारे निक़ाब ||

आदतन   हालाकि   मै   को   वो   कभी  छूता  नहीं |
पर  तेरी  आँखों  से  पी  जाता   है  ‘सैनी ’ बेहिसाब ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Sunday, 22 July 2012

मुसीबत बड़ी


कम  हैं  साधन   मुसीबत  बड़ी |
आम   लोगों   की   ये    त्रासदी ||

घर  मिले   ही  नहीं  आज  तक |
कितनी पब्लिक सड़क पर पडी ||

साल    भर     होती   हैं    बैठकें |
बात   होती   नहीं    काम    की ||

रोशनी   खा   गए  सब  अमीर |
दी      हमें      तीरगी  - तीरगी ||

वो  तो  समझो  गया  जान  से |
जिसने  सच्ची   ज़बां खोल दी ||

आज  अहले - सियासत  कहाँ |
एक  घर  में  सिमट  सी  गयी ||

घर  से   जाते  हुए   बेटी आज |
अश्क  कितने    मुझे  दे  चली ||

साफ़ सुथरा था अब तक अदब |
आ   गयी   इसमें     सौदागिरी ||

हाल   सब   का   ही   बेहाल  है |
एक    ‘सैनी’   नहीं   तू    दुखी ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Wednesday, 18 July 2012

क्या मिला


दर्द -ओ-ग़म  के सिवा  क्या मिला |
आशिक़ी   में    भला   क्या  मिला ||

आप   जैसा    भला     क्या  मिला |
मेरे     जैसा     बुरा     क्या  मिला ||

ज़िंदगी    कट    गयी     कोर्ट    में |
आज   तक   फ़ैसला  क्या  मिला ||

भीड़     में    आदमी     हैं   मगर  |
एक  भी   हमनवा  क्या    मिला ||

मस्जिदे   क्या   शिवाले     सभी |
छान   डाले  ख़ुदा  क्या     मिला ||

दोस्ती      तो      निभाई      नहीं |
दुश्मनी   में  भला  क्या    मिला ||

सेंधमारी        मिरे     घर      हुई |
अब बताओ तो क्या -क्या मिला ||

मशविरा    आप  को  जब  दिया |
आप   से  ही  सिला  क्या  मिला ||

रोज़   ‘सैनी'   के   मैं     सामने  |
गिड़गिडाता    रहा  क्या  मिला ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

Tuesday, 17 July 2012

हाल-ए-वतन


देखिये  वतन  का आज हाल  देखिये |
बंट  रही  है  जूतियों में  दाल देखिये ||

क़ीमतों का जिन्स की कमाल देखिये |
 रात दिन उछाल  ही  उछाल  देखिये ||

लीडरों के फ़न का अब कमाल देखिये |
बासी ये कढ़ी  ले  रही  उबाल  देखिये  ||

हो  गया  ग़रीब  और  भी  ग़रीब   अब |
नेता  हो  रहे  हैं  माला   माल   देखिये ||

काट जिसकी है नहीं किसी के पास भी |
चार  सू  बुना   हुआ   ये  जाल  देखिये ||

कब तलक गरानी दूर होगी मुल्क  की |
उठ   रहे   हैं  रोज़   ही  सवाल  देखिये ||

हो रही हैं  रोज़  ग़लतियाँ  नयी - नयी |
नीचता की नित नयी मिसाल  देखिये ||

हास्पिटलों  में सड़   रहे  मरीज़  अब |
मिहतरों  से  होती  देखभाल  देखिये ||

पार्टी ने दे दिया टिकट उसे  भी  अब |
हो गए ‘सैनी ’के गाल  लाल  देखिये ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी  

Wednesday, 11 July 2012

कोई काम नहीं


तेरी  उल्फ़त  के सिवा मुझको कोई काम नहीं |
तेरी यादों के  बिना मुझको  कोई  काम   नहीं || 

रोज़  फटकार  मुझे   बॉस  की  सुननी  पड़ती |
लगने उसको भी लगा मुझको कोई काम नहीं || 

देखिये कितने लिखे  आज  मैंने  ख़त  उनको |
कैसे कहते हो भला मुझको कोई  काम   नहीं || 

रोज़  चिल्लाता  फिरू  काम  नहीं  काम  नहीं |
एक मुद्दत से मिला मुझको कोई  काम   नहीं || 

आज     पहलू   में   तेरे   रात   गुज़ारूंगा    मैं |
साक़िया जाम पिला मुझको कोई काम   नहीं || 

देख  मुश्किल  से  मुझे  चैन  की  नींदआयी है |
यार मत मुझको उठा मुझको कोई काम नहीं ||  

मैं   ख्यालों  में  तिरे  ही   तो  घिरा   बैठा  था |
और ‘सैनी ’ने  कहा  मुझको  कोई काम नहीं ||  

डा० सुरेन्द्र  सैनी  

Tuesday, 10 July 2012

बाहों का हार


यक़ीं  करके  देखो  बहुत  प्यार दूंगा | 
दिल -ओ-जाँ तुम्हारे लिए वार दूंगा ||

सुनोगे न जब तक मिरी  दास्ताँ को |
सदा मैं भी तुमको ये हर  बार  दूंगा ||

सराहोगे   मेरे  तरानों  को  जितना |
क़लम को मैं उतनी ही रफ़्तार दूंगा ||

मुझे  आज़माने की ज़रूरत नहीं  है |
सहारा  मैं   तुमको  लगातार  दूंगा ||

सभी    ख़ाब   पूरे   होंगे   जहाँ   पर |
तुम्हे  वो  रुपहला  सा  संसार  दूंगा ||

तुम्हे एक पल भी ख़ुशी गर मिले तो |
सभी अपनी ख़ुद की ख़ुशी मार दूंगा ||

नहीं दे  सकेगा  तुम्हे ‘सैनी ’ ज़ेवर  |
मगर अपनी  बाहों का मैं हार  दूंगा ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी         

Sunday, 8 July 2012

जज़्बा -ए-आशिक़ी


जज़्बा -ए-आशिक़ी अब इतने उफान पर है |
चर्चा -ए -इश्क़  मेरा  सब की ज़बान पर  है ||

इज़्हार  मैंने  सारी  बातों  का  कर  दिया  है |
बस बात अब तो तेरे दीन-ओ -इमान पर है ||

तानी   हुईं    कमाने     साधे    हुए  निशाने |
बेख़ौफ़   पर  परिंदा  अपनी  उड़ान   पर  है ||

दम है तो शेर  पर आ नीचे से  वार  कर  तू |
बस जान तो सलामत  तेरी  मचान  पर  है ||

आदी हुए हैं अब  तो  सब  मरने  मारने  के |
सामान मौत का अब हर इक दुकान पर  है ||

भरता नहीं है  तेरा क्या  पेट  अपने  घर  में |
जो   अब  निगाह  तेरी  सारे  जहान  पर  है ||

ए बर्क़ तू  इनायत   गिरने   से  पहले  करना |
लाखों  का  क़र्ज़ा  बाक़ी   मेरे  मकान  पर  है ||

इल्ज़ाम  मुझ पे  आयद  है तेरी आशिक़ी  का |
आदिल  का  फ़ैसला  अब  तेरे  बयान  पर  है ||

महफ़िल में लोग अब क्यूँ कम से लगे हैं आने |
‘सैनी ’ सुखनवरी   की  अब  तू  ढलान  पर  है ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी    

Thursday, 5 July 2012

आंसू बहुत कम पड़े


बेबसी  में  फंसी  ज़िंदगी  देख  कर  मैं  जो  रोया  तो आंसू बहुत कम पड़े |  
अपनी क़िस्मत में लाचारगी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||    

क़त्ल -ओ -ग़ारत ये  कैसी  मची चार सू  भाई ने भाई  पर तेग़  तानी हुई |
लाश अपने सगो की बिछी देख कर मैं जो रोया  तो आंसू बहुत कम  पड़े ||    

इक इशारे पे तैयार रहता था वो जान तक अपनी देने को मुझको   सदा |
आज उस यार की बेरुख़ी देख कर मैं जो रोया तो आंसू  बहुत  कम  पड़े ||     

जूझता  ज़िंदगी से रहा  मैं सदा  बीबी - बच्चों    को  सपने  दिखाता  रहा |
आज पोशाक सब की फटी  देख कर मैं जो  रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||    

छटपटाता रहा मैं भी कुछ कर  सकूं  पर किसी  ने ये  मौक़ा दिया ही नहीं |
रहनुमाओं की ये संगदिली देख   कर मैं  जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||     

कल के बारे में सोचा नहीं आज तक जो मिला खा लिया खा के मैं सो गया |
अपने घर में बहुत सी कमी देख कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत  कम  पड़े ||    

सोचता था वतन इनके शानो पे हो इल्म -ओ -फ़न से नवाज़ू मैं एसा इन्हें |
एसे बच्चों की आवारगी देख कर मैं  जो  रोया  तो  आंसू  बहुत  कम  पड़े ||    

आज हैरत में हूँ मैं यही सोच कर कैसे  रस्ते   से  भटके  हैं  ये  नौनिहाल |
इनमें बढ़ती हुई मैकशी देख कर मैं जो  रोया  तो  आंसू  बहुत  कम  पड़े ||    

तू   अंधेरों    में   पलता  रहा   आज  तक दूसरों  के दिए पर जलाता रहा |
‘सैनी’ तेरी  ये दरियादिली  देख  कर मैं जो रोया तो आंसू बहुत कम पड़े ||    

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 2 July 2012

इतरा कर चल


बल  खा  कर  इतरा   कर चल |
थोड़ा    सा    शरमा  कर  चल ||

अपने     मादक   यौवन    की |
ख़ुशबू   को  बिखरा  कर चल ||

इन      मतवारे     नैनो    से  |
तू  मदिरा  छलका   कर चल ||

सारे      दरिया      सूखे      हैं |
ज़ुल्फ़ों  को  झटका कर चल ||

गुन्चा - गुन्चा    खिल   जाए |
हौले   से   मुस्का   कर  चल ||

तुझको   हिम्मत   रब   देगा |
तू   मत  यूँ  घबरा  कर चल ||

जो     बातें    कडुवाहट      दें |
उन सब को  दफ़ना कर चल ||

मैं    हूँ    बेबस  चलने    से  |
अब थोड़ा सुस्ता  कर  चल ||

मेरी    उंगली    में   अपने  |
पल्लू  को उलझा कर चल ||

भोली   भाली   सूरत    का  |
भोलापन दिखला  कर चल ||

बिजली   गिरने   वाली   है |
आँचल को लहरा कर चल ||

रुखसारों    की    लाली   से |
सूरज को झुलसा कर चल ||

‘सैनी ’  तेरा     साथी     है |
लोगों को बतला  कर चल ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी       

Thursday, 28 June 2012

नफ़रत के हाशिये


काग़ज़ पे रोज़ खींचे जो नफ़रत के हाशिये |
एसे  क़लम  को  तोड़  के  कूड़े  में  डालिए ||

जब-जब भी उसने राह में  कांटे बिछा दिए |
हमने   बग़ल   से  दूसरे  रस्ते   बना  लिए ||

जब ख़ाक छानने से तुम्हे कुछ नहीं मिला |
जो जानना है पास आके  हम  से  जानिये ||

आराम  तलबी   में   गए  हैं  डूब   हम सभी |
ख़ुद हमने अपनी मौत के  सामाँ जुटा लिए ||

अच्छे -बुरे  हैं  लोग   सभी   इस ज़मीन पर  |
सबको  न  आप  एक  ही  लाठी  से  हांकिये ||

उंगली पकड़ के रोज़ यूं कब तक चलेंगे आप |
ख़ुद  पे  भरोसा कर के डगर ख़ुद  निकालिए ||

बांटो  ज़मीन   घर  ओ   सभी  जायदाद  को |
पर जो दिलों में  प्यार है  उसको  न  बांटिये ||

भड़का  रहे  मुझे  मेरे  भाई  के  ही  ख़िलाफ़ |
अब आप अपने घर का ज़रा  रस्ता नापिये ||

मक़बूलियत बटोर के ‘सैनी’को क्या मिला |
चारो  तरफ़ से सैंकड़ों   दुश्मन  बना  लिए ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Tuesday, 26 June 2012

कुछ नहीं है


मिरे दर्द-ए-दिल की दवा कुछ नहीं है |
दुआओं में भी अब रहा कुछ  नहीं  है ||
 
ख़ुदा  ही   बचाएगा   तूफाँ  से  कश्ती |
ख़ला कुछ नहीं नाख़ुदा कुछ  नहीं  है ||
 
समझ मैं गया हूँ  तिरे प्यार  को  अब |
“फ़रेब-ए-नज़र के सिवा कुछ नहीं है ”||
 
तजरबा ये कहता  है  इस  ज़िंदगी  में |
ख़ुशी का मज़ा ग़म बिना कुछ नहीं है ||
 
हुए आज  तक  जो वो  उनसे  मक़ाले |
रहे   बेनतीजा    हुआ    कुछ  नहीं  है ||
 
मिटा  डाला  मैंने   सभी  हसरतों  को |
दिल-ए-नातवाँ  पर बचा कुछ नहीं है ||
 
चले   जा    रहे   हैं  सभी  आँख  मूंदे |
कहाँ  जायेंगे  ये  पता  कुछ  नहीं  है ||
 
सुना है मुहब्बत वो  करते  हैं  मुझसे |
मगर मुझसे एसा कहा कुछ  नहीं  है ||
 
सजा ली है मैंने ये महफ़िल अदब की |
बिना  ‘सैनी ’तेरे  मज़ा  कुछ  नहीं  है || 
 
डा० सुरेन्द्र  सैनी  

Monday, 25 June 2012

चाहत कुछ नहीं


आप सा  है  हमनवा  बस  और चाहत  कुछ नहीं  |
है मुकम्मल क़ाफ़िला बस और चाहत कुछ  नहीं ||  

जब भी जी चाहा वहाँ जाकर गला तर  कर  लिया |
पास  में  हो  मैकदा  बस  और  चाहत  कुछ  नहीं || 

दे  रहा   जो   दूसरों  को  लौट  कर  मिलना   वही |
कर सकूँ सब का भला बस और चाहत कुछ नहीं || 

आग  , पानी   और   हवा   ये   हैं ख़ुदा  की नेमतें |
ये  मुझे  भी  हों  अता बस और चाहत कुछ नहीं || 

कह  रहा  हूँ जो फ़क़त सुन  लीजिएगा   ग़ौर   से |
आपने जब सुन लिया बस और चाहत कुछ नहीं || 

खींच   ली  दीवार  जब  हमने  हमारे  दरमियान |
हो गया है फैसला  बस  और  चाहत   कुछ  नहीं || 

आज फ़ाक़ामस्त ‘सैनी ‘ को ज़रुरत है  ही क्या |
दाल रोटी के  सिवा बस  और चाहत कुछ  नहीं || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Sunday, 24 June 2012

भरोसा न होता


ख़ुदा पर अगर कुछ भरोसा न होता |
सफ़ीना  भंवर  में  उतारा  न  होता ||

अगर कुछ तुम्हारा इशारा न  होता |
मिरा आशिक़ी का  इरादा  न  होता ||

तिरी बेवफ़ाई से  सीखा  बहुत  कुछ |
वगरना  हमें  ये  तजरबा   न  होता ||

अगर  हमसफ़र   तुम   होते  न  मेरे |
सफ़र ये कभी अपना  पूरा  न  होता ||

नसीबों में अपने क्या आज़ादी होती |
शहीदों  ने सर गर कटाया  न  होता ||

लबों   ने   तुम्हारे   इसे  दी  रवानी |
यूं  मशहूर  मेरा  तराना   न  होता ||

कोई  बात  ‘सैनी ’की भी मान लेते |
कभी आप लोगों में झगडा न होता ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी     

Friday, 22 June 2012

खाबों में खोने दो


अभी तो  रात  बाक़ी  है  ज़रा  सा  और  सोने  दो |
किसी के ख़ाब आने हैं  मुझे  खाबों  में  खोने  दो ||

ज़बरदस्ती किसी को तुम हँसाओगे  भला  कैसे |
लिखा तक़दीर में उसकी अगर रोना तो रोने  दो ||

बना रक्खा है मैंने  पैर  के  तलुओं   को  फ़ौलादी |
बला   से  राह  में  कांटें   कोई  बोता  है  बोने  दो ||

गुनाहगारों से भर के कश्ती  दरिया  में  उतारी  है |
डुबाता है अगर  माझी  तो  कश्ती  को  डुबोने  दो ||

मेरी आग़ोश में सर रख के वो ग़म हल्का करते हैं |
उन्हें  आंसू  बहा  कर मेरे दामन  को  भिगोने  दो ||

जिसे  ग़म से मुहब्बत है जिसे ग़म  रास  आते हैं |
अकेले  ही   उसे  उसके  ग़मों   का  बोझ  ढ़ोने दो ||

खड़ा चुपचाप  ‘सैनी ’तो  तमाशा   देखता   रहता |
ग़ज़ल कहनी कहे जाओ जो होता है सो  होने  दो ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
  

Tuesday, 19 June 2012

कह दिया उनको


हमारे दिल में जो भी था वो सब कुछ कह दिया उनको |
ख़ुदा  ही  जानता  है  अब  तो   ये  कैसा  लगा  उनको ||

मुझे    अर्सा    हुए    बीमारियों    ने     बाँध   रक्खा  है |
अभी तक भी नहीं क्यों कर चला आख़िर पता  उनको ||

जिन्हें  ज़र  के  समुन्दर  में  नहाने  की  पडी  आदत |
ख़याल  आयेगा  क्यों  मेरी  ग़रीबी  का  भला  उनको ||

बड़ा  मुंहफट  हूँ  मेरी  इस  कमी  को  जानते  हैं सब |
कहा   होगा   ज़रूर   एसा   लगा  है  जो  बुरा  उनको ||

समझते हैं मुझे वो क्या  ये  उनकी  सोच  है अपनी |
मगर मैंने तो  समझा है  फ़क़त इन्सां भला उनको ||

कभी   गुस्से   में   उनके   देखना  तेवर  अरे  तौबा |
नहीं  ख़तरे  से  है  ख़ाली   ज़रा  भी  छेड़ना  उनको ||

कराते    हैं   बड़ा  ख़र्चा तरस  खाते  नहीं  बिल्कुल |
बदलते इस ज़माने की  लगी  है  अब  हवा  उनको ||

पसीजा  दिल कभी  उनका  नहीं  मेरी  तबाही  पर |
कईं  लोगों का कहना है सुकून इससे मिला उनको ||

बिठा कर अपनी पलकों पर हमेशा ही उन्हें रक्खा |
समझता  ही  रहा  ‘सैनी ’हमेशा  हमनवा  उनको ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
  
  

बेबसी रह गयी


आँख में कुछ नमी  रह  गयी |
टीस दिल  में  बची  रह गयी ||

दर्द     औलाद     देने     लगी |
परवरिश में  कमी  रह  गयी ||

सोचने   के   लिए   उम्र   भर |
अब   मेरी   बेबसी  रह  गयी ||

और  तो  कुछ  नहीं  मेरे पास |
याद   बस  आपकी  रह  गयी ||

इश्क़   तो   अब  तमाशा  बना |
नाम   की  आशिक़ी  रह  गयी ||

बात    करते    रहे    वो   बहुत |
बात  पर   काम  की  रह  गयी ||

मुझको  करके  फ़ना चल  दिए |
अब कमी  कौन  सी  रह  गयी ||

जो  तरक्क़ी की दरख़्वास्त दी |
फाइलों    में    दबी   रह  गयी ||

सुन के ‘सैनी ’की रूदाद-ए-ग़म |
साँस  सबकी   थमी   रह  गयी ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी  

Sunday, 17 June 2012

प्यार करते हो


हमीं  से  प्यार  करते  हो  हमीं  से  घात   करते  हो |
वफ़ादारी की आख़िर  कौन  सी  ये  बात  करते  हो ||

झगड़ना  ,रोना  उसके  बाद  ये  घंटों  का  पछताना |
भला   पैदा   ही  एसे  आप  क्यों  हालात  करते  हो ||

शरारत   बातों -बातों  में  बताओ   तो  ज़रा  मुझको |
मेरे   ही  साथ  करते  हो  या  सबके  साथ करते  हो ||

कभी   पूरी   हुई    है   आपसे   बच्चों   की  फ़र्माइश |
यों करने को तो मेहनत आप भी दिन -रात करते हो ||

शिकायत   है   अगर  कोई   सलीक़े   से   करो  भाई |
किसी के  क्यों  अबस घायल अरे जज़्बात करते हो ||

सियासत  कोठरी  काजल की है बच  के ज़रा रहना |
इसे अब छोड़ना  अच्छा  क्यों  काले हाथ करते  हो ||

शराफ़त  की  हसीनों   से   किये    उम्मीद  बैठे  हो |
मियाँ ‘सैनी ’भला तुम भी कहाँ  की बात  करते हो ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी